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वेदमाता गायत्री की महत्ता और स्वीकार्यता

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 |||  वेदमाता गायत्री की महत्ता और स्वीकार्यता |||
आलेख ✍️ मानसपुत्र संजय कुमार झा व्हाट्सऐप संपर्क 9679472555 , 9431003698 
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  |||  ॐ श्री गुरुवे नमः ॐ  ||| 

• गायत्री छन्दसामहम्। 
—श्रीमद् भगवद् गीता अ० १०.३५ 
( छन्दों में मैं गायत्री हूँ. ) 

• भूर्भुव: स्वरिति चैव चतुर्विंशाक्षरा तथा। 
गायत्री चतुरोवेदा ओंकार: सर्वमेव तु॥ 
—बृ० यो० याज्ञ० २/६६ 
( भूर्भुव: स्व: यह तीन महाव्याहृतियाँ, चौबीस अक्षर वाली गायत्री तथा चारों वेद निस्सन्देह ओंकार (ब्रह्म) स्वरूप हैं. ) 

• देवस्य सवितुर्यस्य धियो यो न: प्रचोदयात्। 
भर्गो वरेण्यं तद्ब्रह्म धीमहीत्यथ उच्यते॥ 
—विश्वामित्र उस दिव्य तेजस्वी ब्रह्म का हम ध्यान करते हैं, जो हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करता है। 

• अथो वदामि गायत्रीं तत्त्वरूपां त्रयीमयीम्। 
यया प्रकाश्यते ब्रह्म सच्चिदानन्दलक्षणम्॥ 
—गायत्री तत्त्व० श्लोक १ 
( त्रिवेदमयी (वेदत्रयी) तत्त्व स्वरूपिणी गायत्री को मैं कहता हूँ, जिससे सच्चिदानन्द लक्षण वाला ब्रह्म प्रकाशित होता है अर्थात् ज्ञात होता है. ) 

• गायत्री वा इदं सर्वम्। 
—नृसिंहपूर्वतापनीयोप० ४/३ 
( यह समस्त जो कुछ है, गायत्री स्वरूप है। गायत्री परमात्मा। ) 

वेदमाता गायत्री वह दैवी शक्ति है जिससे सम्बन्ध स्थापित करके मनुष्य अपने जीवन विकास के मार्ग में बड़ी सहायता प्राप्त कर सकता है। परमात्मा की अनेक शक्तियाँ हैं, जिनके कार्य और गुण पृथक् पृथक् हैं। उन शक्तियों में गायत्री का स्थान बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। यह मनुष्य को सद्बुद्धि की प्रेरणा देती है। गायत्री से आत्मसम्बन्ध स्थापित करने वाले मनुष्य में निरन्तर एक ऐसी सूक्ष्म एवं चैतन्य विद्युत् धारा संचरण करने लगती है, जो प्रधानतः मन, बुद्धि, चित्त और अन्तःकरण पर अपना प्रभाव डालती है। बौद्धिक क्षेत्र के अनेकों कुविचारों, असत् संकल्पों, पतनोन्मुख दुर्गुणों का अन्धकार गायत्री रूपी दिव्य प्रकाश के उदय होने से हटने लगता है। यह प्रकाश जैसे- जैसे तीव्र होने लगता है, वैसे- वैसे अन्धकार का अन्त भी उसी क्रम से होता जाता है।

* वेद कहते हैं- ज्ञान को। 
ज्ञान के चार भेद हैं- ऋक्, यजुः, साम और अथर्व।

• ऋक् 
कल्याण, प्रभु- प्राप्ति, ईश्वरीय दर्शन, दिव्यत्व, आत्म- शान्ति, ब्रह्म- निर्वाण, धर्म- भावना, कर्तव्य पालन, प्रेम, तप, दया, उपकार, उदारता, सेवा आदि ऋक् के अन्तर्गत आते हैं। 

• यजुः
पराक्रम, पुरुषार्थ, साहस, वीरता, रक्षा, आक्रमण, नेतृत्व, यश, विजय, पद, प्रतिष्ठा, यह सब ‘यजु:’ के अन्तर्गत हैं। 

• साम
क्रीड़ा, विनोद, मनोरञ्जन, संगीत, कला, साहित्य, स्पर्श इन्द्रियों के स्थूल भोग तथा उन भोगों का चिन्तन, प्रिय कल्पना, खेल, गतिशीलता, रुचि, तृप्ति आदि को ‘साम’ के अन्तर्गत लिया जाता है। 

• अथर्व
धन, वैभव, वस्तुओं का संग्रह, शास्त्र, औषधि, अन्न, वस्तु, धातु, गृह, वाहन आदि सुख- साधनों की सामग्रियाँ ‘अथर्व’ की परिधि में आती हैं।

इस प्रकार के अनेकों प्रमाण मौजूद हैं, जिससे यह प्रकट होता है कि गायत्री माता का आँचल श्रद्धापूर्वक पकडऩे से मनुष्य अनेक प्रकार की आपत्तियों से सहज में छुटकारा पा सकता है। अनिवार्य कर्म- भोगों एवं कठोर प्रारब्ध में भी कई बार आश्चर्यजनक सुधार होते देखे गये हैं।

गायत्री उपासना का मूल लाभ आत्म- शान्ति है। इस महामन्त्र के प्रभाव से आत्मा में सतोगुण बढ़ता है और अनेक प्रकार की आत्मिक समृद्धियाँ बढ़ती हैं, साथ ही अनेक प्रकार के सांसारिक लाभ भी मिलते हैं।

|||  इति शुभम् प्रभातम  ...  ॐ शांति ॐ ( क्रमशः )  ||| ........... रीता singh

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